मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नए चेहरों को मौका देकर मोदी के दांव से हर कोई हैरान

नईदिल्ली

जब 26 अक्टूबर 2014 को मनोहर लाल खट्टर ने हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली तो इंदिरा गांधी जैसे करिश्माई और लोकप्रियता वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चर्चा ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को पहली बार एक बड़ा संदेश दिया था. अब एक बार फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नए चेहरों को मौका देकर बीजेपी के दांव से हर कोई हैरान है. नए मुख्यमंत्री पद के चयन के दौरान जो देखने को मिला, वो मोदी की सफलता और अधिकार के प्रति रुचि को दर्शा रहा है. पूरी पार्टी खुशी से झूम उठी और बीजेपी के अंदर और बाहर उनके लगातार बढ़ते समर्थन-आधार ने तुरंत समर्थन दे दिया.

2023 के छत्तीसगढ़ की तरह ही 2014 में हरियाणा में भी बीजेपी के पास मजबूत संगठनात्मक ढांचे की भारी कमी थी. कई जिलों में पार्टी के पास कोई प्रभावशाली जिलाध्यक्ष और अच्छी टीम तक नहीं थी. त्रिकोणीय मुकाबले में फंसी बीजेपी की सफलता की एकमात्र उम्मीद नरेंद्र मोदी और उनके इनहाउस रणनीतिकार अमित शाह थे. छत्तीसगढ़ चुनाव के नतीजे ज्यादातर पत्रकारों, राजनीतिक विश्लेषकों और एग्जिट पोल के उलट आए हैं.

'क्या इंदिरा की राह पर है बीजेपी?'

कई लोगों के लिए मोदी पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी और संभवत: इंदिरा गांधी से भी बड़े आइकॉन बन गए हैं. अब बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी की मुखरता और क्षेत्रीय क्षत्रपों के प्रति उपेक्षा बीजेपी को मजबूत करेगी या 'इंदिरा की राह' पर चलते दिखा रही है. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस ने साहसी, चौंकाने वाले या लापरवाह वाले प्रयोग किए, जिसने पार्टी को कमजोर किया. 

'इंदिरा के निशाने पर आए थे चुनौती देने वाले नेता'

इंदिरा के प्रति निष्पक्षता से कहें तो जब जनवरी 1966 में उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला था, तब कांग्रेस के पास राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय नेताओं की फौज थी, जिनके मन में दिल्ली दरबार या इंदिरा के लिए बहुत कम सम्मान था. दरअसल, इंदिरा गांधी की प्राथमिकता 1971 के संसदीय चुनाव जीतना थी. ऐसे में उन्होंने उन क्षेत्रीय क्षत्रपों को हटाने के लिए व्यवस्थित रूप से काम शुरू कर दिया. इंदिरा के टारगेट पर वो नेता भी आए, जिन्होंने चुनौती देने की कोशिश की. इंदिरा ने पार्टी के मुख्यमंत्रियों को हटाने या बदलने के लिए संघीय संसाधनों का इस्तेमाल किया.  उनकी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने अनुचित तरीकों का इस्तेमाल किया. 

राजस्थान में डॉ. संपूर्णानंद ने तो गिनती तक गलत कर दी, जबकि हरियाणा में बीएन चत्रवर्ती ने सरकार को बर्खास्त कर दिया. धर्म वीरा ने वामपंथी सरकार को हटाने के लिए कलकत्ता राजभवन को साजिश का केंद्र बना डाला.

'विधायकों को इग्नोर किया, पसंदीदा नेताओं को बनाया सीएम'
1971 की जीत से उत्साहित इंदिरा ने नवनिर्वाचित पार्टी विधायकों की इच्छाओं की घोर उपेक्षा की और अपने पसंदीदा नेताओं को मुख्यमंत्री नियुक्त करना शुरू कर दिया. 1980 में जब दूसरी इंदिरा लहर में उनकी वापसी हुई, तब तक आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात में जनता से उनके नाम पर वोट मांगे जाने लगे. इंदिरा गांधी ने गुंडू राव (कर्नाटक), एआर अंतुले (महाराष्ट्र), जगनाथ पहाड़िया (राजस्थान) अर्जुन सिंह (मध्य प्रदेश) जैसे छोटे कद के नेताओं को मुख्यमंत्री के रूप में चुनकर कांग्रेस को 'संस्थागत रूप से कमजोर' कर दिया.

'सीएम बदलने और प्रयोग का लंबा चला सिलसिला'

बाद में इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी ने 1985-89 के बीच 22 मुख्यमंत्रियों को बदलने या नियुक्त करने का रिकॉर्ड बनाया. राजस्थान में हरिदेव जोशी ने एससी माथुर की जगह ली. फिर माथुर ने जोशी की जगह ली और अंततः जोशी ने माथुर को पछाड़ दिया. इसी तरह, मार्च 1985-89 के बीच बिहार में म्यूजिकल चेयर की लड़ाई में बिंदेश्वरी दुबे को देखा गया. दुबे की जगह भागवत झा आजाद ने ली और फिर एसएन सिन्हा ने भागवत झा आजाद को हटा दिया और नवंबर 1989 में एसएन सिन्हा की जगह पर जगन्नाथ मिश्रा ने सीएम की कुर्सी हासिल कर ली. इस अवधि में मध्य प्रदेश में भी ऐसी ही म्यूजिकल चेयर देखी गई. वहां अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, एससी शुक्ला और अर्जुन सिंह ने बारी-बारी से मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली.

जब तक 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों को अपराधों के लिए दोषी ठहराए जाने पर तुरंत अयोग्य ठहराने वाला ऐतिहासिक फैसला नहीं सुनाया, तब तक यह राजनीतिक नेतृत्व के रवैये पर निर्भर था कि संकट में फंसा मुख्यमंत्री बचेगा या उसे सजा का सामना करना पड़ेगा.

'रवैये के हिसाब से परखे जाते थे दागी सीएम'

जवाहरलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को उनकी सुविधा के स्तर और शक्ति समीकरणों के अनुसार बर्खास्त करने या बनाए रखने के लिए विभिन्न मानदंडों का इस्तेमाल किया. 1952-64 के बीच नेहरू दागी मुख्यमंत्री को उनके रवैये के हिसाब से परखते थे. उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को बार-बार दोषमुक्त किया. हालांकि, 1963 में नेहरू द्वारा गठित जांच आयोग की रिपोर्ट के बाद कैरों को 1964 में जाना पड़ा. नेहरू कैरों के फलों को लेकर विजन की तारीफ भी करते थे.

'खुद के करिश्मे की सोच से कांग्रेस को पहुंचा नुकसान'

बाद में इंदिरा का अपने व्यक्तिगत करिश्मे के जरिए वोटर्स को आकर्षित करने का भरोसा कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ. सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को इस भरोसे से संस्थागत नुकसान पहुंचा. कांग्रेस की पकड़ से सबसे पहले तमिलनाडु और बंगाल बाहर हुए. 1989 में जब राजीव गांधी ने पद छोड़ा, तब तक राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की कहानी खत्म हो चुकी थी. पीवी नरसिम्हा राव, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व में आलाकमान की सर्वोच्चता वाली सोच से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र, दिल्ली, गुजरात और कई उत्तर-पूर्वी राज्यों से लेकर बंगाल, तमिलनाडु, यूपी, बिहार तक में कांग्रेस पार्टी को नुकसान होते देखा गया.

 

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