इस्लाम से भी पुराना ‘काफिया’ का इतिहास, गाजा की जंग में फिलिस्तीन का सबसे बड़ा हथियार

नई दिल्ली
सात दिनों के युद्धविराम के बाद इजरायली सेना ने गाजा पट्टी पर फिर कहर बरपाना शुरू कर दिया है। 7 अक्टूबर से शुरू हुए इस कत्लेआम में अभी तक हजारों जान जा चुकी हैं लेकिन, खून-खराबा नहीं रुका। एक तरफ इजरायल हमास के खिलाफ जंग को जायज ठहरा रहा है तो दूसरी तरफ गाजा पट्टी में मारे जा रहे फिलिस्तीनियों के लिए आवाज लगातार बुलंद हो रही है। दुनिया के कई हिस्सों में फिलिस्तीनियों के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। इनमें सबसे रोचक बात है- काफिया ओढ़े प्रदर्शनकारी। काफिया यानी मफलर। मामूली सा कपड़ा दिखने वाले काफिया का फिलिस्तीनियों के लिए इतिहास काफी पुराना है। कोई इसे इस्लाम से भी पुराना बताता है। काफिया से जुड़ा सबसे मजबूत इतिहास यह भी है कि इसे ओढ़कर कभी लोगों ने ब्रिटेन की नाक में इतना दम कर दिया था कि इसे बैन तक करना पड़ा।

7 अक्टूबर को जब हमास ने इजरायली धरती पर कत्लेआम मचाया तो इसने दुनिया को एक और महायु्द्ध में धकेल लिया। पहले हमास ने इजरायली शहरों में कत्लेआम किया तो अब बदला लेने के लिए इजरायल हमास को जड़ से मिटाना चाहता है। इजरायल की इस चाह में हजारों बेकसूर फिलिस्तीनियों को भी मरना पड़ रहा है। इजरायल के लिए भले ही यह 'जंग में सब जायज' वाली बात होगी, लेकिन फिलिस्तीनी समर्थकों के लिए यह किसी नरसंहार से कम नहीं। इजरायल के खिलाफ गुस्से की आग का असर यह है कि दुनिया के उन देशों में भी लोग फिलिस्तीनियों के समर्थन में रैलियां निकाल रहे हैं, जिनकी हुकूमतें इजरायल के साथ खड़ी हैं। इसमें ब्रिटेन और अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क भी शामिल हैं। इन प्रदर्शनों में सबसे कॉमन है- काफिया। मामूली से कपड़े का यह टुकड़ा आज इजरायल के खिलाफ जंग में फिलिस्तीन का सबसे बड़ा हथियार है। विभिन्न प्रदर्शनों में लोग काफिया ओढ़कर गाजा में शांति के लिए फिलिस्तीन के प्रति अपना समर्थन दिखा रहे हैं।

इस्लाम से भी पुराना काफिया का इतिहास
काफिया की शुरुआत कब हुई, इसकी सटीक जानकारी मिलना मुश्किल है लेकिन, इतिहासकारों की मानें तो इसका चलन 7वीं शताब्दी में शुरू हुआ था। हालांकि कई इतिहासकार इसे इस्लाम से भी पुराना मानते हैं। इसके नाम को लेकर ऐसा कहा जाता है कि इस पहनावे का प्रचलन इराक के एक शहर कुफा से शुरू हुआ था, इसलिए इसे काफिया कहा जाता है। साल-दर साल इसका प्रचलन इतना बढ़ा है कि यह न सिर्फ सांस्कृतिक और राजनीतिक बल्कि व्यवहारिक कारणों से भी पहचान बनाने लगी। इतिहासकारों का मानना है कि अरब देशों से आने वाले किसान और खाना बदोश लोग 20वीं सदी में इसे ठंड, धूप और हवा-धूल से बचने के लिए इस्तेमाल में लाते थे।

40 के दशक में ब्रिटेन के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक बना काफिया
1930 के बाद काफिया का इस्तेमाल व्यवहारिक और सांस्कृतिक महत्व से आगे बढ़कर राजनीतिक हो गया। बात 1936 में महान अरब विद्रोह की है। दरअसल, पहले विश्व यु्द्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स ने फिलिस्तीनी इलाकों को ब्रिटेन को सौंप दिया था। ब्रिटेन के राज से फिलिस्तीनियों में आक्रोश था। उनका मानना था कि  ब्रिटेन यहूदी लोगों के लिए काम कर रहा है। ब्रिटेन ने यहां 1948 तक राज किया। बाद में ये इलाके यहूदियों को सौंप दिए गए, जो आज इजरायल में आते हैं। 1936 में ब्रिटेन पर गंभीर अत्याचारों के आरोप लगाकर फिलिस्तीनियों ने महान अरब विद्रोह की शुरुआत की। इस दौरान प्रदर्शनकारियों ने काफिया का जमकर इस्तेमाल किया। यहां यह गौर करने वाली बात है कि काफिया का उस वक्त इस्तेमाल कोई प्रतीक नहीं बल्कि, मुंह छिपाने के लिए किया जाता था। अक्सर प्रदर्शनकारी काफिया ओढ़कर ब्रिटेन के खिलाफ सड़कों पर हल्ला मचाते। लेकिन, ब्रिटिश सैनिकों के लिए मुश्किल यह थी कि काफिया में उनको पहचानना काफी मुश्किल था। हालात इस कदर बिगड़ गए कि ब्रिटेन को काफिया बैन तक करने की नाकाम कोशिश करनी पड़ी।

काफिया के रंग से उसके मतलब
काफिया के वैसे तो कई रंग होते हैं। लेकिन, जैतून के पत्ते, लाल और काले रंग का काफिया फिलिस्तीनियों में काफी प्रचलित है। इसके हर रंग का अपना महत्व और मतलब है। जैतून की पत्तियों वाले रंग का मतलब उन किसानों और मजदूर वर्ग वाले लोगों से है जो अपनी जमीन से जुड़ाव का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं, लाल रंग फिलिस्तीनी मछुआों का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि काला रंग फिलिस्तीन का अपने पड़ोसियों से व्यापारिक संबंध बताता है।

 

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