धीरेंद्रु मजूमदार की माँ : इप्टा की नाट्य प्रस्तुति आज

(अमिताभ पाण्डेय)
भोपाल

आज़ादी की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ पर आज़ादी के आंदोलन और उसमें अपनी सहभागिता देने वाले जनसाधारण के बलिदान को हमें कभी नहीं भूलना है।
अमर बलिदान को याद करते हुए इप्टा, इंदौर द्वारा एक नाटक का मंचन आज भोपाल में किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि आज़ादी के साथ ही बँटवारे का दर्द भी भारतवासियों को  झेलना पड़ा था।

आज़ाद भारत के साथ ही पश्चिमी और पूर्वी पकिस्तान भी बने थे। हमे यह भी बात ध्यान में रखना होगा कि जो उन दिनों जो लोग स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे, वो अंग्रेज़ों से भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे, न कि बँटवारे के लिए, लेकिन बँटवारे के दंश उन्हें भी भुगतने पड़े। आम लोगों के ऐसे संघर्ष भरे जीवन की कहानी है "धीरेन्दु  मजुमदार  की माँ"। यह एक ऐसी  महिला की कहानी है जिसके सारे बच्चे आज़ादी की लड़ाई में शहीद हो गए।

यह कहानी मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका ललिताम्बिका अंतर्जनम ने 1970 के दशक में लिखी थी जब बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम हुआ था और एक देश के रूप में पूर्वी पाकिस्तान से उसे बांग्लादेश की नयी पहचान हासिल हुई थी। जो लोग पहले अंग्रेज़ों के शोषण का शिकार थे, वे बाद में पश्चिमी पकिस्तान के शोषण का शिकार बने थे और शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में उन्हें एक आज़ाद पहचान हासिल हुई थी , लेकिन दशकों तक फैली इस लड़ाई में आम लोगों ने बहुत कुछ झेला था।
बहुत सी क़ुर्बानियाँ दी थीं।

 उस समय जो सवाल उठे थे, उनमें से बहुत से सवाल आज भी जवाब के इंतज़ार में हैं। इंदौर की इप्टा इकाई ने उक्त कहानी पर केंद्रित एक नाटक तैयार किया है । इसका  मंचन हाल ही में   27 जनवरी  को इंदौर में प्रेस क्लब के राजेंद्र माथुर सभागृह किया गया ।

आज 29 जनवरी को इसका मंचन भोपाल में श्यामला हिल्स पर स्थित रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप के राग बंध प्रेक्षागृह में होगा ।  आजादी के लिए बलिदान देने वाले ज्ञात ,अज्ञात नायकों को हमें कभी नहीं भूलना है। इसी भावना के साथ  हमारे समय में भी इस प्रकार के  नाटक का मंचन जरूरी ज़रूरी है ।

 आज़ादी के 75वें वर्ष में इसकी प्रासंगिकता ज्यादा हो गई है। आजादी के दौर वाले संघर्ष की याद दिलाने वाले इस नाटक को  ज़रूर  देखना और दिखाना चाहिए।
 जनपक्षधर विचारधारा के सभी साथियों ने इस नाटक को देखने का आग्रह आम जनता से किया है।

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